गुरुवार, 23 जुलाई 2009

............................................................

50 गुना लागत बढ़ी, समय अवधि चार गुना
फिर भी पूरी नहीं हुई स्वर्णरेखा परियोजना
विष्णु राजगढ़िया
रांची : झारखंड में अकाल की स्थिति है। खेत सूखे हैं। चार जिले सूखाग्रस्त घोषित किये जा चुके हैं और पूरे राज्य को सूखाग्रस्त घोषित करने की मांग की जा रही है। वैसे भी राज्य में मात्र 22 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि सिंचित है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकडा 40 फीसदी से भी ज्यादा है।
झारखंड की इस बदहाली का एक बड़ा कारण अधिकांश सिंचाई योजनाओं का लंबित और अधूरी रह जाना है।स्वर्णरेखा बहुद्देश्यीय परियोजना वर्ष 1973 में बनी थी। उस वक्त इसकी लागत 90 करोड़ होने का अनुमान था। इसे आठ साल में पूरा कर लेने का लक्ष्य रखा गया था। लेकिन इन 36 वर्षों में यह परियोजना पूरी नहीं हो सकी है। इस बीच इसकी लागत राशि 90 करोड़ से लगभग 50 गुना ज्यादा बढ़ाकर 4540 करोड़ कर दी गयी है। लागत और अवधि में इतनी वृद्धि के बावजूद परियोजना अधूरी होना पूर्ववर्ती बिहार और अब झारखंड सरकार की कार्यसंस्कृति का घिनौना उदाहरण है।स्वर्णरेखा नदी छोटानागपुर के पठार से निकलकर पश्चिम बंगाल और ओड़िशा होकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
इस परियोजना का उद्देश्य झारखंड में सिंचाई और बिजली उत्पादन के साथ ही घरेलू एवं औद्योगिक उपयोग हेतु जल उपलब्ध कराना था। इसके अलावा पश्चिम बंगाल एवं ओड़िशा में बाढ़ नियंत्रण के लिहाज से भी इसे महत्वपूर्ण परियोजना माना गया था। इसके तहत चांडिल, खरकई, गालूडीह और ईचा में बांध के जरिये नहर बनानी थी। लेकिन अब तक कोई काम पूरा नहीं हुआ है। इसे दो चरणों में पूरी करना था।
पहले चरण में चांडिल, खरकई और गालूडीह संबंधी काम करना था और ईचा बांध संबंधी काम दूसरे चरण में करना था। लेकिन सारे काम एक साथ शुरू कर दिये जाने से अराजक स्थिति उत्पन्न् हो गयी। अगर पहले चांडिल बांध एवं उसकी नहर प्रणाली को पूरा किया गया होता तो इसका लाभ तत्काल मिल सकता था।इस परियोजना के लिए जमशेदपुर में एक विशेष परियोजना इकाई का गठन करके एक प्रशासक की नियुक्ति की गयी थी। सरकार के सचिव स्तर के इस प्रशासक को केंद्र एवं तीनों राज्य सरकारों से समन्वय स्थापित करने से लेकर परियोजना का बजट बनाने, वनभूमि संबंधी प्रबंध, पुनर्वास एवं ठेका प्रबंध इत्यादि कार्यों हेतु व्यापक शक्तियां हासिल थीं। लेकिन धीरे-धीरे प्रश्ाासक की शक्तियां छीनकर राज्य सरकार के जल संसाधन सचिव को दे दी गयीं। यहां तक कि कई बार प्रशासक का पद रिक्त रखा गया। एक बार लगभग डेढ़ साल तक यह पद रिक्त रहा।
इन चीजों ने परियोजना को बर्बाद करने में अहम भूमिका निभायी।विसथापन और पुनर्वास संबंधी चुनौतियों का समुचित हल नहीं ढूंढ़ पाने के कारण भी इस परियोजना को जटिलता और विरोध का सामना करना पड़ा। 1986 में 75 हजार एकड़ भूमि की आवश्यकता होने का अनुमान लगाया गया था। झारखंड बनने तक लगभग 50 हजार एकड़ भूमि का अधिग्रहण भी कर लिया गया था। लेकिन वर्ष 2002 में 116 हजार एकड़ भूमि की जरूरत का आकलन किया गया। दूसरी ओर, विस्थापितों के पुनर्वास और मुआवजा संबंधी विवादों के कारण जमीन का अधिग्रहण भी नहीं किया जा सका।परियोजना में अराजकता के कई अन्य गंभीर उदाहरण मिलते हैं। विभिन्न् कार्यों की स्वीकृति एवं क्रियान्वयन में तकनीकी पहलुओं की अनदेखी के कारण काफी नुकसान उठाना पड़ा। मसलन, चांडिल बायीं मुख्य नहर के 22.86 किलोमीटर पर एक पुल का निर्माण समतल भूमि से छह मीटर नीचे कर दिया गया। अत्यधिक ढाल के कारण इस पुल तक पहुंचने की सड़क बनाना मुश्किल था। इसके कारण इस पुल को बेकार छोड़ देना पड़ा। इसके बदले वर्ष 2006 में लगभग 50 लाख की लागत से एक नया पुल बनाना पड़ा।
इसी तरह, चांडिल बायीं मुख्य नहर के 25.42 किलोमीटर पर नहर को दलमा पहाड़ी से बहने वाले पानी से बचाने के लिए एक सुपर पैसेज बनाया गया था। लेकिन तकनीकी खामियों के कारण यह अपना काम नहीं कर सका और वैकल्पिक प्रबंध के लिए लगभग सवा करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च करना पड़ा।झारखंड अपने गठन के दौर से ही विकास की छटपटाहट से गुजर रहा है। लेकिन पूर्ववर्ती बिहार की कार्यसंस्कृति की छाया से उबर नहीं पाने के कारण सभी विकास योजनाएं अधर में लटकी हुई हैं। जमीन के अधिग्रहण और पुनर्वास व मुआवजे संबंधी नीति पर अब तक सहमति नहीं बन पाना भी इस दिशा मंे एक बड़ी समस्या है।
ऐसे में राज्य को सूखाग्रस्त घोषित करने और स्पेशल पैकेज के नाम पर केंद्र से कुछ अतिरिक्त राशि मांगने के सिवाय राजनीतिक दलों के पास भी कोई एजेंडा नहीं। स्वर्णरेखा बहुद्देश्यीय परियोजना कब पूरी होगी, यह पूछने की फुरसत उन्हें नहीं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें